रचनाकार: कबीरदास | Kabirdas (कबीर के दोहे, साखियां (काव्य))
रचनाकार: कबीरदास | Kabirdas कबीर की साखियां (काव्य): सतगुरु सवाँ न को सगा, सोधी सईं न दाति । हरिजी सवाँ न को हितू, हरिजन सईं न जाति ।।१।। सद्गुरु के समान कोई सगा नहीं है। शुद्धि के समान कोई दान नहीं है। इस शुद्धि के समान दूसरा कोई दान नहीं हो सकता। हरि के समान कोई हितकारी नहीं है, हरि सेवक के समान कोई जाति नहीं है। बलिहारी गुरु आपकी, घरी घरी सौ बार । मानुष तैं देवता किया, करत न लागी बार ।।२।। मैं अपने गुरु पर प्रत्येक क्षण सैकड़ों बार न्यौछावर जाता हूँ जिसने मुझको बिना विलम्ब के मनुष्य से देवता कर दिया। सतगुरु की महिमा अनँत, अनँत किया उपगार । लोचन अनँत उघारिया, अनँत दिखावनहार ।।३।। सद्गुरु की महिमा अनन्त है। उसका उपकार भी अनन्त है। उसने मेरी अनन्त दृष्टि खोल दी जिससे मुझे उस अनन्त प्रभु का दर्शन प्राप्त हो गया। राम नाम कै पटंतरे, देबे कौं कुछ नाहिं । क्या लै गुरु संतोषिए, हौंस रही मन माँहि ।।४।। गुरु ने मुझे राम नाम का ऐसा दान दिया है कि मैं उसकी तुलना में कोई भी दक्षिणा देने में असमर्थ हूँ। सतगुरु कै सदकै करूँ, दिल अपनीं का साँच । कलिजु...
Comments
Post a Comment